व्रत कथा
वीर तेजाजी की जन्म कथा :
तेजाजी के जन्म के बारे में जन मानस के बीच प्रचलित एक राजस्थानी कविता के आधार पर मनसुख रणवा का मत है:
जाट वीर धौलिया वंश गांव खरनाल के मांय ।
आज दिन सुभस भंसे बस्ती फूलां छाय ॥
शुभ दिन चौदस वार गुरु, शुक्ल माघ पहचान ।
सहस्र एक सौ तीस में प्रकटे अवतारी ज्ञान ॥
सत्यवादी वीर शिरोमणि श्री तेजाजी का जन्म माघ शुक्ल चौदस, संवत 1130 (29 जनवरी 1074) के दिन सूर्योदय के शुभ मुहूर्त में, नागौर जिले के खरनाल गांव के धौलिया गौत्रीय जाट घराने में हुआ। तेजाजी के पिता का नाम ताहड़देव ( थिरराज ) और माता का नाम रामकुंवरी (उर्फ सुगणा) था। उनके दादा बोहितराव बहादुर योद्धा थे। तेजाजी के ताऊ बख्शाराम जी थे, जो कि न्यायप्रिय व प्रतिष्ठित पुरुष थे।
तेजाजी की वंशावली कुछ इस प्रकार है
1. महारावल 2. भौमसेन 3. पीलपंजर 4. सारंगदेव 5. शक्तिपाल 6. रायपाल 7. धवलपाल 8. नयनपाल 9. घर्षणपाल 10. तक्कपाल 11. मूलसेन 12. रतनसेन 13. शुण्डल 14. कुण्डल 15. पिप्पल 16. उदयराज 17. नरपाल 18. कामराज 19. बोहितराव ( बक्सा जी ) 20. ताहड़देव ( थिरराज ) 21. तेजाजी ( तेजपाल )
जिस समय तेजाजी का जन्म हुआ, दादा बक्सा जी खरनाल गाँव के मुखिया थे। खरनाल परगने के अधिकारक्षेत्र में 24 गांव आते थे ।
तेजाजी का ननिहाल अजमेर जिले की किशनगढ़ तहसील के त्यौद गांव में ज्याणी गोत्र में था। तेजाजी के नाना का नाम दुल्हण जी और मामा का नाम हेमुजी था ।
ताहड़देव का विवाह त्यौद के मुखिया दुल्हण जी की पुत्री रामकुंवरी के साथ हुआ परंतु जब शादी के बारह वर्षों पश्चात भी संतान सुख प्राप्त नहीं हुआ, तो बक्सा जी ने ताहड़देव का दूसरा विवाह अठ्यासन के मुखिया करणा जी फड़ौदा की पुत्री रामीदेवी के साथ करवा दिया।
इधर पुत्र प्राप्ति के लिए रामकुंवरी भी अपने पति ताहड़देव से अनुमति लेकर अपने पीहर त्यौद के जंगलों में गुरु मंगलनाथ के मार्गदर्शन में नागदेवता की आराधना करने लगी। 12 वर्षों की कड़ी तपस्या के फलस्वरूप रामकुंवरी को नागदेवता से पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद मिला, तत्पश्चात रामकुंवरी पुनः खरनाल लौट आई।
इस बीच रामीदेवी से ताहड़देव को पांच पुत्र प्राप्त हुए (रूपजीत, रणजीत, गुणजीत, महेशजी, नागजीत)। समय बीतने पर रामकुंवरी के गर्भ से पुत्र तेजाजी व पुत्री राजल पैदा हुए।
कलयुग में तेजाजी को शिव का अवतार माना गया है। तेजा जब पैदा हुए तब उनके चेहरे पर विलक्षण तेज था जिसके कारण इनका नाम तेजा रखा गया। उनके जन्म के समय तेजा की माता को एक आवाज सुनाई दी – कुंवर तेजा ईश्वर का अवतार है, तुम्हारे साथ अधिक समय तक नहीं रहेगा।
रामकुंवरी ने पति ताहड़देव से तेजाजी के जन्म की खुशी में पुष्कर पूर्णिमा के दिन पुष्कर स्नान और वापसी में त्यौद के जंगलों में नागदेवता की पूजा की इच्छा जताई। ताहड़देव ने सहर्ष स्वीकृति दी और तेजाजी के जन्म के 9वें महीने पुष्कर स्नान के लिए रवाना हुए। ताहड़देव के साथ उनके भाई आसकरण भी पुष्कर गए।
पुष्कर में पनेर के मुखिया रायमल जी भी सपरिवार अपनी पुत्री पेमल के जन्म की खुशी में पुष्कर स्नान के लिए आये हुए थे। वहीं पर आसकरण और रायमल में मित्रता हो गई और बातों ही बातों में उन्होंने इस मित्रता को एक रिश्ते में बदलने की ठानी । तेजाजी और पेमल का विवाह करके।
रायमल जी ने ताहड़देव से तेजा और पेमल के रिश्ते की बात की। ताहड़देव भी इस रिश्ते के लिए सहर्ष तैयार हो गए। विवाह का मुहूर्त दो दिन पश्चात विक्रम संवत 1131 की पुष्कर पूर्णिमा को गोधुली वेला में निश्चित किया गया। उस समय तेजाजी की उम्र मात्र 9 महीने और पेमल की उम्र 6 महीने थी।
रीति रिवाजों के अनुसार विवाह की सहमति के लिए तेजा और पेमल के मामाओं को आमंत्रित किया गया। तेजा के मामा हेमूजी सही समय पर पुष्कर पहुँच गए, परन्तु पेमल के मामा खाजू काला को जायल से पुष्कर पहुँचने में देर हो गई। खाजू काला जब पुष्कर पहुंचा। तेजा और पेमल के फेरे हो चुके थे, और जब खाजू काला को पता चला कि उसकी भांजी का विवाह ताहड़देव के पुत्र तेजा के साथ सम्पन्न हुआ है, वह आग बबूला हो उठा। जायल के काला जाटों और धौलिया जाटों के मध्य पीढ़ियों पुरानी दुश्मनी थी । क्रोधित खाजू काला ने अपशब्दों का प्रयोग किया और तलवार निकाल ली। झगड़े में खाजू काला मारा गया।
पहले से चली आ रही दुश्मनी में एक गाँठ और पड़ गई। तेजा जी की सासु बोदलदे अपने भाई की मौत से काफी नाराज हुई और मन ही मन अपने भाई की मौत का बदला लेने और बेटी पेमल को अपने भाई के हत्यारों के घर न भेजने का प्रण लिया।
समय बीतता गया और बक्सा जी ने वृद्धावस्था को देखते हुए खरनाल का मुखिया पद पुत्र ताहड़देव को दे दिया। प्रतिदिन की तरह एक बार जब तेजाजी बड़कों की छतरी में स्थापित शिवलिंग पर जल चढ़ाकर आ रहे थे, रास्ते में ठाकुरजी के मंदिर के बाहर भीड़ लगी देखी। नजदीक जाने पर पता चला कि पाँचू मेघवाल नाम के बच्चे ने भूख से त्रस्त होकर ठाकुरजी के मंदिर में प्रवेश कर प्रसाद में से एक लड्डू उठा लिया था। इस बात से नाराज पुजारी उसकी पिटाई कर रहा था।
तेजाजी ने पुजारी के लात-घूसों से पांचू को बचाया और सीने से लगाकर सान्त्वना प्रदान की। पंडित जी ने गुस्से से बताया कि यह नीची जाति का लड़का है और इसने ठाकुरजी के मंदिर में प्रवेश करने और प्रसाद चोरी करने का अपराध किया है। तेजाजी ने पुजारी को समझाया कि छोटी जाति की सबरी भीलनी के जूठे बेर भी तो आपके ठाकुर जी ने स्वयं खाये थे और भगवान श्रीकृष्ण भी तो गुर्जरियों से माखन चुरा कर खाया करते थे। तेजाजी ने बताया कि ठाकुर जी का निवास अकेली प्रतिमा में ही नहीं है बल्कि प्रत्येक प्राणी में है। बालक तो वैसे ही परमात्मा का स्वरूप होता है। उस दिन के पश्चात पाँचू मेघवाल तेजाजी के सानिध्य में रहा।
ताहड़देव का मित्र लक्खी बंजारा (लाखा बालद) एक बार जब माल लादकर खरनाल के रास्ते सिंध की ओर रहा था, ताहड़देव के आग्रह पर खरनाल में डेरा लगाया और ताहड़देव कि मेजबानी का आनंद लेने लगा । उसी दिन लाखा के डेरे में एक गर्भवती घोड़ी ने एक सफेद रंग की बछिया को जन्म दिया । बछिया के जन्म लेते ही उसकी मां मर गई ।
लाखा ने नवजात बछिया को उपहार स्वरूप बालक तेजा को दे दी । तेजाजी ने उस बछिया की सेवा-सुश्रुषा की उसे गाय का दूध पिलाकर बड़ा किया । तेजाजी ने उसका नाम ” लीलण ” रखा । लीलण तेजाजी की प्रिय सखी बन गई ।
समय अपनी गति से आगें बढ़ता रहा। तेजाजी ने अपने भाईयों के साथ पिता ताहड़देव और दादा बक्सा जी से मल्लयुद्ध और भाला चलाना सीखा। काका आसकरण ने तेजा को तलवार चलाना सिखाया। इसी बीच लुटेरों ने खेतों को देखने गए ताहड़देव और आसकरण पर धोखे से हमला किया और उनकी हत्या कर दी।
पंचों ने पुनः बक्सा जी को खरनाल के मुखिया पद पर बिठाया। 9 वर्ष की उम्र में तेजाजी कुछ वर्षों के लिए अपने ननिहाल त्यौद चले गए और वहीँ पर गुरु मंगलनाथ से शिक्षा लेने लगे । त्यौद में मामा हेमुजी से धनुर्विद्या और तलवारबाजी सिखना जारी रखा।
16 वर्ष के होने पर तेजाजी खरनाल वापस लौटे। उस समय खरनाल चोरों और लुटेरों के चौतरफा हमले झेल रहा था । तेजाजी ने आते ही खरनाल को चोर गिरोह के आतंक से मुक्ति दिलाई।
तेजाजी के जन्म के समय पुत्ररत्न की प्राप्ति पर दान-पुण्य का रिवाज था। इसी उद्देश्य से जनपद के गणपति तोहरदेव अनाज, वस्त्र और मोहरें लेकर पुष्कर सरोवर पर स्नान करने गये। वहाँ पर इसी उद्देश्य से पनेर के गणपति रायमलजी झांझर आये हुये थे, उनके साथ राजकुमारी पेमल भी थी। प्राचीनकाल में बाल-विवाह प्रतिष्ठा का सूचक था। अत: कुंवर तेजपाल का विवाह पीले पोतड़ों में विश्व के एकमात्र ब्रह्माजी के मंदिर की साक्षी में पुष्कर घाट पर बचपन में पनेर के गणपति रायमलजी झांझर की पुत्री पेमलदे के साथ सम्पन्न हुआ। किन्तु शादी के कुछ ही समय बाद उनके पिता और पेमल के मामा में कहासुनी हो गयी और तलवार चल गई जिसमें पेमल के मामा की मौत हो गई। इस कारण उनके विवाह की बात को उन्हें बताया नहीं गया था।
बचपन में ही तेजाजी के साहसिक कारनामों से लोग आश्चर्यचकित रह जाते थे। कुंवर तेजपाल बड़े हुए। उनके चेहरे की आभा चमकने लगी। वे राज-काज से दूर रहते थे। वे गौसेवा में लीन रहते थे। उन्होंने कृषकों को कृषि की नई विधियां बताई। पहले जो बीज उछाल कर खेत जोता जाता था, उस बीज को जमीन में हल द्वारा ऊर कर बोना सिखाया। फसल को कतार में बोना सिखाया। इसलिए कुंवर तेजपाल को कृषि वैज्ञानिक कहा जाता है।
गौसेवा व खेतों में हल जोतने में विशेष रुचि रखते थे। तेजाजी ने ग्यारवीं शदी में गायों की डाकुओं से रक्षा करने में कई बार अपने प्राण दांव पर लगा दिये थे। तेजाजी सत्यवादी और दिये हुये वचन पर अटल रहते थे। उन्होंने अपने आत्म-बलिदान तथा सदाचारी जीवन से अमरत्व प्राप्त किया था। उन्होंने अपने धार्मिक विचारों से जनसाधारण को सद्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया और जनसेवा के कारण निष्ठा अर्जित की।
जात-पांत की बुराइयों पर रोक लगाई। शुद्रों को मंदिरों में प्रवेश दिलाया। पुरोहितों के आडंबरों का विरोध किया। इसीलिये तेजाजी के मंदिरों में निम्न वर्गों के लोग पुजारी का काम करते हैं। समाज सुधार का इतना पुराना कोई और उदाहरण नहीं है। उन्होंने जनसाधारण के हृदय में हिन्दू धर्म के प्रति लुप्त विश्वास को पुन: जागृत किया। इस प्रकार तेजाजी ने अपने सद्कार्यों से जन-साधारण में नवचेतना जागृत की।
वीर तेजाजी (1074-1103) की राजस्थान के इतिहास में वीरता की बहुत कहानियां है। उन्होंने लोगों के लिये कई बार अपने जीवन और परिवार को खतरे में डाल दिया। बहुत से उदाहरण से भरा है जहाँ निष्ठा, स्वतंत्रता, सच्चाई, शरण, सामाजिक सुधार की तरह स्वाभिमान और मूल्यों बनाये रखा है। वीर तेजा जी राजस्थान के इतिहास में मशहूर लोगों में से एक है।
वीर तेजाजी की कथा का मुख्य पड़ाव :
तेजाजी का हळसौतिया ज्येष्ठ मास लग चुका है। ज्येष्ठ मास में ही ऋतु की प्रथम वर्षा हो चुकी है। ज्येष्ठ मास की वर्षा अत्यन्त शुभ है। गाँव के मुखिया को हालोतिया या हळसौतिया करके बुवाई की शुरुआत करनी है। मुखिया मौजूद नहीं है। उनका बड़ा पुत्र भी गाँव में नहीं है। उस काल में परंपरा थी कि वर्षात होने पर कबीले के गणपति सर्वप्रथम खेत में हल जोतने की शुरुआत करता था, तत्पश्चात किसान हल जोतते थे। मुखिया की पत्नी अपने छोटे पुत्र को, जिसका नाम तेजा है, खेतों में जाकर हळसौतिया का शगुन करने के लिए कहती है। तेजा माँ की आज्ञानुसार खेतों में पहुँच कर हल चलाने लगा है। दिन चढ़ आया है। तेजा को जोरों की भूख लग आई है।
उसकी भाभी उसके लिए ‘छाक’ यानी भोजन लेकर आएगी। मगर कब? कितनी देर लगाएगी? सचमुच, भाभी बड़ी देर लगाने के बाद ‘छाक’ लेकर पहुँची है। तेजा का गुस्सा सातवें आसमान पर है। वह भाभी को खरी-खोटी सुनाने लगा है। तेजाजी ने कहा कि बैल रात से ही भूखे हैं मैंने भी कुछ नहीं खाया है, भाभी इतनी देर कैसे लगादी। भाभी भी भाभी है। तेजाजी के गुस्से को झेल नहीं पाई और काम से भी पीड़ित थी सो पलट कर जवाब देती है, एक मन पीसना, पीसने के पश्चात उसकी रोटियां बनाई, घोड़ी की खातिर दाना डाला, फिर बैलों के लिए चारा लाई और तेजाजी के लिए छाक लाई परन्तु छोटे बच्चे को झूले में रोता छोड़ कर आई, फिर भी तेजा को गुस्सा आये तो तुम्हारी जोरू जो पीहर में बैठी है। कुछ शर्म-लाज है, तो लिवा क्यों नहीं लाते?
तेजा को भाभी की बात तीर-सी लगती है। वह रास पिराणी फैंकते हैं और ससुराल जाने की कसम खाते हैं। वह तत्क्षण अपनी पत्नी पेमल को लिवाने अपनी ससुराल जाने को तैयार होता है। तेजा खेत से सीधे घर आते हैं और माँ से पूछते हैं कि मेरी शादी कहाँ और किसके साथ हुई। माँ को खरनाल और पनेर की दुश्मनी याद आई और बताती है कि शादी के कुछ ही समय बाद तुम्हारे पिता और पेमल के मामा में कहासुनी हो गयी और तलवार चल गई जिसमें पेमल के मामा की मौत हो गयी। माँ बताती है कि तेजा तुम्हारा ससुराल गढ़ पनेर में रायमलजी के घर है और पत्नी का नाम पेमल है।
तुम्हारी शादी ताउजी बख्शाराम जी ने पीला-पोतडा़ में ही करदी थी। तेजा ससुराल जाने से पहले विदाई देने के लिये भाभी से पूछते हैं। भाभी कहती है – देवरजी आप दुश्मनी धरती पर मत जाओ। आपका विवाह मेरी छोटी बहिन से करवा दूंगी। तेजाजी ने दूसरे विवाह से इनकार कर दिया। तेजाजी की भाभी फिर कहती है कि पहली बार ससुराल को आने वाली अपनी दुल्हन पेमल का ‘बधावा’ यानी स्वागत करने वाली अपनी बहन राजल को तो पहले पीहर लेकर आओ।
तेजाजी का ब्याह बचपन में ही पुष्कर में पनेर गाँव के मुखिया रायमलजी की बेटी पेमल के साथ हो चुका था। विवाह के कुछ समय बाद दोनों परिवारों में खून- खराबा हुआ था। तेजाजी को पता ही नहीं था कि बचपन में उनका विवाह हो चुका था। भाभी की तानाकशी से हकीकत सामने आई है।
जब तेजाजी अपनी बहन राजल को लिवाने उसकी ससुराल के गाँव तबीजी के रास्ते में थे, तो एक मेणा सरदार ने उन पर हमला किया। जोरदार लड़ाई हुई। तेजाजी जीत गए। तेजाजी द्वारा गाडा गया भाला जमीन में से कोई नहीं निकाल पाया और सभी दुश्मन भाग गए। तबीजी पहुँचे और अपने बहनोई जोगाजी सियाग के घर का पता पनिहारियों से पूछा। उनके घर पधार कर उनकी अनुमति से राजल को खरनाल ले आए।
तेजाजी के पनेर प्रस्थान की कथा :
तेजाजी अपनी माँ से ससुराल पनेर जाने की अनुमति माँगते हैं। माँ को अनहोनी दिखती है और तेजा को ससुराल जाने से मना करती है। भाभी कहती है कि पंडित से मुहूर्त निकलवालो। पंडित तेजा के घर आकर पतड़ा देख कर बताता है कि उसको सफ़ेद देवली दिखाई दे रही है जो सहादत की प्रतीक है। सावन व भादवा माह अशुभ हैं। पंडित ने तेजा को दो माह रुकने की सलाह दी।
तेजा ने कहा कि तीज से पहले मुझे पनेर जाना है चाहे धन-दान ब्राह्मण को देना पड़े। वे कहते हैं कि जंगल के शेर को कहीं जाने के लिए मुहूर्त निकलवाने की जरुरत नहीं है। तेजा ने जाने का निर्णय लिया और माँ-भाभी से विदाई ली। अगली सुबह वे अपनी लीलण घोड़ी पर सवार हुए और अपनी पत्नी पेमल को लिवाने निकल पड़े। जोग-संजोग के मुताबिक तेजा को लकड़ियों से भरा गाड़ा मिला, कुंवारी कन्या रोती मिली, छाणा चुगती लुगाई ने छींक मारी, बिलाई रास्ता काट गई, कोचरी दाहिने बोली, मोर कुर्लाने लगे। तेजा अन्धविसवासी नहीं थे। सो चलते रहे। बरसात का मौसम था। कितने ही उफान खाते नदी-नाले पार किये। सांय काल होते-होते वर्षात ने जोर पकडा। रास्ते में बनास नदी उफान पर थी। ज्यों ही उतार हुआ तेजाजी ने लीलण को नदी पार करने को कहा जो तैर कर दूसरे किनारे लग गई। तेजाजी बारह कोस अर्थात 36 किमी का चक्कर लगा कर अपनी ससुराल पनेर आ पहुँचे।
तेजाजी पनेर पहुँचे तब शाम का समय था। पनेर गढ़ के दरवाजे बंद हो चुके थे। तेजाजी जब पनेर के कांकड़ पहुंचे तो एक सुन्दर सा बाग दिखाई दिया। तेजाजी भीगे हुए थे। बाग के दरवाजे पर माली से दरवाजा खोलने का निवेदन किया। माली ने कहा बाग की चाबी पेमल के पास है, मैं उनकी अनुमति बिना दरवाजा नहीं खोल सकता।
कुंवर तेजा ने माली को कुछ रुपये दिए तो झट ताला खोल दिया। रातभर तेजाजी ने बाग में विश्राम किया और लीलन ने बाग में घूम-घूम कर पेड़-पौधों को तोड़ डाला। बाग के माली ने पेमल को परदेशी के बारे में और घोड़ी द्वारा किये नुकसान के बारे में बताया। पेमल की भाभी बाग में आकर पूछती है कि परदेशी कौन है, कहाँ से आया है और कहाँ जायेगा।
तेजा ने परिचय दिया कि वह खरनाल का जाट है और रायमल जी के घर जाना है। पेमल की भाभी माफी मांगती है और बताती है कि वह उनकी छोटी सालेली है। सालेली (साले की पत्नी) ने पनेर पहुँच कर पेमल को खबर दी।
तेजाजी पनेर पहुँचे। पनिहारियाँ सुन्दर घोड़ी पर सुन्दर जवाई को देखकर हर्षित होती है। तेजा ने रायमलजी का घर पूछा। सूर्यास्त होने वाला था। उनकी सास गायें दूह रही थी। तेजाजी का घोड़ा उनको लेकर धड़धड़ाते हुए पिरोल में आ घुसा। सास ने उन्हें पहचाना नहीं। वह अपनी गायों के डर जाने से उन पर इतनी क्रोधित हुई कि सीधा श्राप ही दे डाला, जा, तुझे काला साँप खाए!
तेजाजी उसके श्राप से इतने क्षुब्ध हुए कि बिना पेमल को साथ लिए ही लौट पड़े। तेजाजी ने कहा यह नुगरों की धरती है, यहाँ एक पल भी रहना पाप है। अपने पति को वापस मुड़ते देख पेमल को झटका लगा। पेमल ने पिता और भाइयों से इशारा किया कि वे तेजाजी को रोकें। श्वसुर और साले तेजाजी को रोकते हैं, पर वे मानते नहीं हैं। वे घर से बहार निकल आते हैं।
पेमल की सहेली लाछां गूजरी का घर रुपनगढ़ से लगभग 2 किलोमीटर पर था। लाछां गूजरी ने पेमल को तेजाजी से मिलवाने का यत्न किया। वह ऊँटनी पर सवार हुई और रास्ते में मेणा सरदारों से लड़ती-जूझती तेजाजी तक जा पहुँची। उन्हें पेमल का सन्देश दिया -“अगर वो उसे छोड़ कर गए, तो वह जहर खा कर मर जाएगी। उसके मां-बाप उसकी शादी किसी और के साथ तय कर चुके हैं। लाछां बताती है, पेमल तो मरने ही वाली थी, वही उसे तेजाजी से मिलाने का वचन दे कर रोक आई है।”
लाछन तेजाजी को वापस ले आती है परन्तु उसके समझाने पर भी तेजाजी पर कोई असर नहीं होता है। पेमल अपनी माँ को खरी खोटी सुनाती है। पेमल कलपती हुई आकर लीलण के सामने खड़ी हो गई। पेमल ने कहा – “आपके इंतजार में मैंने इतने वर्ष निकाले। मेरे साथ घर वालों ने कैसा बर्ताव किया यह मैं ही जानती हूँ। आज आप चले गए तो मेरा क्या होगा। मुझे भी अपने साथ ले चलो। मैं आपके चरणों में अपना जीवन न्यौछावर कर दूँगी।”
पेमल की व्यथा देखकर तेजाजी पोल में रुके। सभी ने पेमल के पति को सराहा। शाम के समय सालों के साथ तेजाजी ने भोजन किया। देर रात तक औरतों ने जंवाई गीत गाये। पेमल की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। तेजाजी पेमल से मिले। अत्यन्त रूपवती थी पेमल। दोनों बतरस में डूबे थे कि लाछां की आहट सुनाई दी। लाछां गुजरी ने तेजाजी से गुहार लगायी कि “मेर के मेणा डाकू उसकी गायों को चुरा कर ले गए हैं। अब उनके सिवाय उसका कोई मददगार नहीं। आप मेरी सहायता कर अपने क्षत्रिय धर्म की रक्षा करो अन्यथा गायों के बछडे भूखे मर जायेंगे।”
तेजाजी ने कहा राजा व भौमिया को शिकायत करो। लाछां ने कहा राजा कहीं गये हुए हैं और भौमिया से दुश्मनी है। पनेर में एक भी मर्द नहीं है जो लड़ाई के लिए चढाई करे। तेजाजी ने कहा कि तुम्हारी गायें मैं लाऊंगा। तेजाजी फिर अपनी लीलण घोड़ी पर सवार हुए। पांचों हथियार साथ लिए। पेमल ने घोड़ी की लगाम पकड़ कर कहा कि मैं साथ चलूंगी। लड़ाई में घोड़ी थाम लूंगी। तेजा ने कहा पेमल जिद मत करो। मैं क्षत्रिय धर्म का पालक हूँ। मैं अकेला ही मेणा डाकुओं को हराकर गायें वापिस ले आऊंगा। तेजाजी के आदेश के सामने पेमल चुप हो गई। पेमल अन्दर ही अन्दर कांप भी रही थी। वह बुद्बुदाने लगी –
डूंगर पर डांडी नहीं, मेहां अँधेरी रात ।
पग-पग कालो नाग, मति सिधारो नाथ ।।
अर्थात – पहाडों पर रास्ता नहीं है, वर्षात की अँधेरी रात है और पग-पग पर काला नाग दुश्मन है ऐसी स्थिति में मत जाओ। तेजाजी धर्म के पक्के थे सो पेमल की बात नहीं मानी और पेमल से विदाई के लिये कहा। पेमल ने तेजाजी को भाला सौंपाकर विदा किया।
वहां से तेजाजी ने भाला, धनुष, तीर लेकर लीलण पर चढ़ उन्होंने चोरों का पीछा किया। वर्तमान सुरसुरा नामक स्थान पर उस समय घना जंगल था। रास्ते में वे जब चोरों का पीछा कर रहे थे, उसी दौरान उन्हें एक काला नाग आग में घिरा नजर आया। उन्होंने नाग को भाले द्वारा आग से बाहर निकाला। जो इच्छाधारी नाग बालू उर्फ बासक नाग था। बासक नाग जोड़े के बिछुड़ जाने कारण अत्यधिक क्रोधित हुआ। बासग नाग ने उन्हें शाबासी देने बजाय यह कहा कि मैं तुझे डसूंगा। तेजाजी ने कहा – मरते, डूबते व जलते को बचाना मानव का धर्म है। मैंने तुम्हारा जीवन बचाया है, कोई बुरा काम नहीं किया। भलाई का बदला बुराई से क्यों लेना चाहते हो।
नागराज को कहा लीलण के पैरों से दूर खिसक जाओ वरना कुचले जाओगे। नागराज ने फुंफकार कर दोष दिया कि वे उसकी नाग की योनी से मुक्ति में बाधक बने। बासग नाग ने कहा – मुझे मरने से बचाने पर तुम्हें क्या मिला, मैं जोड़े से बिछुड़ गया तथा बूढा व असहाय हो गया था, मेरा बुढापा बड़ा दुखदाई होगा, मेरी मुक्ति के लिए मैं जल जाना चाहता था। शूरा तूने मेरी जिन्दगी बेकार कर दी। मुझे आग में जलने से रोककर तुमने अनर्थ किया है। मैं तुझे डसूंगा तभी मुझे मोक्ष मिलेगा। तेजाजी ने प्रायश्चित स्वरूप नागराज की बात मान ली और उन्होंने नागराज को वचन दिया कि लाछां गूजरी की गायें चोरों से छुड़ा कर उसके सुपुर्द करने के बाद नागराज के पास लौट आएँगे। पर नागराज को विश्वास नहीं होता है। तब तेजाजी ने विश्वास दिलाया कि मैं धर्म से बंधा हूँ। सूरज-चाँद व सूखे खेजड़े की साख भरकर वचन देते हैं कि मैं हर हाल में वापिस लौटूंगा। मेरा वचन पूरा नहीं करुँ तो समझना मैंने मेरी माँ का दूध ही नहीं पिया है।
वीर तेजाजी वापिस लौट आने का वचन देकर सुरसुरा की घाटी में पहुंचते हैं सुरसुरा से 15-16 किमी दूर मंदावारिया की पहाडियों में डाकू दिखाई दिए। तेजाजी ने डाकुओं को ललकारा। वहां डाकुओं के साथ भंयकर संघर्ष होता है। तेजाजी ने बाणों से हमला किया। कुछ डाकू ढेर हो गए, कुछ भाग गए और कुछ डाकुओं ने आत्मसमर्पण कर दिया। तेजा का पूरा शारीर घायल हो गया और तेजा सारी गायों को लेकर पनेर पहुंचे और लाछां गूजरी को सौंप दी।
लाछां गूजरी को सारी गायें दिखाई दी पर गायों के समूह में काणां केरडा नहीं दिखा तो वह उदास हो गई और तेजा को वापिस जाकर लाने के लिए बोला। तेजाजी वापस गए। पहाड़ी में छुपे मेणा डाकुओं पर हमला बोल दिया व बछड़े को ले आये। इस लड़ाई में तेजाजी का शरीर छलनी हो गया। बताते हैं कि लड़ाई में 150 डाकू मारे गए जिनकी देवली मंदावारिया की पहाड़ी में बनी हैं। सब डाकुओं को मार कर तेजाजी विजयी होकर वापस पनेर आये। तेजाजी लाछां गूजरी को काणां केरडा सौंप कर वचनबद्धता के अनुसार लीलण घोड़ी से बोले कि तुम वापस उस जगह चलो जहाँ मैं वचन देकर आया हूँ।
तेजाजी सीधे बासग नाग के इन्तजार स्थल पर आते हैं। बासग नाग से बोलते हैं कि मैं मेरा वचन पूरा करने आया हूँ तुम अब अपना वचन पूरा करो। नागराज का हृदय काँप उठा। नागराज ने कहा – तेजा नाग कुंवारी जगह बिना नहीं डसता। तुम बुरी तरह लहुलूहान हो, तुम्हारे रोम- रोम से खून टपक रहा है। मैं कहाँ डसूं? तेजाजी ने कहा अपने वचन को पूरा करो। मेरे हाथ की हथेली व जीभ कुंवारी हैं, मुझे डसलो। नागराज ने कहा -“तेजा तुम शूरवीर हो। मैं तुम्हारी इमानदारी और बहादुरी पर प्रसन्न हूँ। मैंने पीढी पीढी का बैर चुकता कर लिया। अब तुम जाओ। धन्य है तेजा तुम्हारे माता-पिता, धन्य है तुम्हारी शूरवीरता और प्राण। आज कालिया हार गया और धौलिया जीत गया। मैं तुम्हें जीवन दान देता हूँ। मैं प्रसन्न होकर तुम्हें वरदान देता हूँ कि तुम अपने कुल के एक मात्र देवता कहलाओगे। कुल के देवता के रूप में पूजे जावोगे। आज के बाद काला सर्प का काटा हुआ कोई व्यक्ति यदि तुम्हारे नाम की तांती बांध लेगा तो उसका पान उतर जायेगा। किसान खेत में हलोतिया करने से पहले तुम्हारे नाम की पूजा करेगा और तुम कलयुग के अवतारी देवता माने जावोगे। यही मेरी अमर आशीष है।” तेजाजी ने कहा मैं अपने वचन पर अटल हूँ तुम अपने वचन को पूरा करो। नाग को उनके क्षत्-विक्षत् शरीर पर दंश रखने भर को भी जगह नजर नहीं आई और अन्तत: तेजाजी ने अपनी जीभ पर सर्प-दंश झेल कर अपने वचन की रक्षा की।
तेजाजी ने नजदीक ही ऊँट चराते रैबारी आसू देवासी को बुलाया और कहा, “भाई आसू देवासी ! मुसीबत में काम आने वाला ही घर का होता है, तू मेरा एक काम पूरा करना। मेरी इहलीला समाप्त होने वाली है मेरा रुमाल व ये समाचार रायमलजी मेहता के घर ले जाना और मेरे सास ससुर को पांवा धोक कहना। पेमल को मेरे प्यार का रुमाल दे देना, सारे गाँव वालों को मेरा राम-राम कहना और जो कुछ यहाँ देख रहे हो पेमल को बता देना और कहना कि तेजाजी कुछ पल के मेहमान हैं।”
लीलण घोड़ी की आँखों से आंसू टपकते देख तेजाजी ने कहा – “लीलण तू धन्य है। आज तक तूने सुख-दुःख में मेरा साथ निभाया। मैं आज हमेशा-हमेशा के लिए तुम्हारा साथ छोड़ रहा हूँ। तू खरनाल जाकर मेरे परिवार जनों को आँखों से समझा देना।”
आसू देवासी सीधे पनेर में रायमलजी के घर गया और पेमल को कहा – “राम बुरी करी पेमल तुम्हारा सूरज छुप गया। तेजाजी बलिदान को प्राप्त हुए। मैं उनका मेमद मोलिया लेकर आया हूँ।“
तेजाजी के बलिदान का समाचार सुनकर पेमल के आँखों के आगे अँधेरा छा गया। उसने माँ से सत का नारियल माँगा, सौलह श्रृंगार किये, परिवार जनों से विदाई ली और सुरसुरा जाकर तेजाजी के साथ सती हो गई।
पेमल जब चिता पर बैठी तब लीलण घोड़ी को सन्देश देती है कि सत्य समाचार खरनाल जाकर सबको बतला देना। कहते हैं कि अग्नि स्वतः ही प्रज्वलित हो गई और पेमल सती हो गई।
लोगों ने पूछा कि सती माता तुम्हारी पूजा कब करें तो पेमल ने बताया कि – “भादवा सुदी नवमी की रात्रि को तेजाजी धाम पर जागरण करना और दसमी को तेजाजी के धाम पर उनकी देवली को धौक लगाना, कच्चे दूध का भोग लगाना। इससे मनपसंद कार्य पूर्ण होंगे। यही मेरी अमर आशीष है।”
लीलण घोड़ी सतीमाता के हवाले अपने मालिक को छोड़ अंतिम दर्शन पाकर सीधी खरनाल की तरफ रवाना हुई। परबतसर के खारिया तालाब पर कुछ देर रुकी और वहां से खरनाल पहुंची। खरनाल गाँव में लीलण खाली पीठ पहुंची तो तेजाजी की भाभी को अनहोनी की शंका हुई। लीलण की शक्ल देख पता लग गया की तेजाजी संसार छोड़ चुके हैं।
तेजाजी की बहिन राजल बेहोश होकर गिर पड़ी, फिर खड़ी हुई और माता-पिता, भाई-भोजाई से अनुमति लेकर माँ से सत का नारियल लिया और खरनाल के पास ही पूर्वी जोहड़ में चिता चिन्वाकर भाई की मौत पर सती हो गई। भाई के पीछे सती होने का यह अनूठा उदहारण है। राजल बाई को बाघल बाई भी कहते हैं राजल बाई का मंदिर खरनाल में गाँव के पूर्वी जोहड़ में है। जिसे बांगुरी माता का मंदिर कहते हैं। तेजाजी की प्रिय घोड़ी लीलण भी दुःख नहीं झेल सकी और अपना शारीर छोड़ दिया। लीलणघोड़ी का मंदिर आज भी खरनाल के तालाब के किनारे पर बना है।
वीर तेजाजी लोकदेवता, कृषि कार्यो के उपकारक देवता, प्रणवीर, युद्धवीर, सत्यवीर, परमार्थी, वीर शिरोमणि थे।