व्रत कथा
श्रीनारायणजी बोले, ‘इसके बाद चिन्ता से आतुर राजा दृढ़धन्वा के घर बाल्मीकि मुनि आये जिन्होंने परम अद्भुत तथा सुन्दर रामचन्द्रजी का चरित्र वर्णन किया है। राजा दृढ़धन्वा ने दूर से ही बाल्मीकि मुनि को आते हुए देखकर घबड़ाहट के साथ जल्दी से उठकर भक्तियुक्त हो उनके चरणों में दण्डवत् प्रणाम किया। भलीभाँति पूजा कर उत्तम आसन पर ऋषि को बैठाकर उनके चरणों को गोद में लेकर दोनों हाथों से धोया, और उस चरणोदक को बड़े हर्ष के साथ शिर से धारण कर शुक पक्षी की बात स्मरण करता हुआ राजा दृढ़धन्वा ने मधुर वचन से यों कहा।
दृढ़धन्वा बोला, ‘हे भगवन्! इस समय मैं कृतकृत्य हूँ। भाग्यवान हूँ। मेरा जन्म सफल हुआ। हे प्रभो! आज मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ। आज आप के प्रत्यक्ष दर्शन से शास्त्रादिकों के यथार्थ अर्थ का ज्ञान सफल हुआ। हे जगत् के पावन करने वालों के पावन करने वाले! आज मैं अपने भाग्य का क्या वर्णन करूँ?’
श्रीनारायण बोले, ‘इस तरह बाल्मीकि मुनि को कहकर वह राजा मौन हो गये, बाद बाल्मीकि मुनि उस राजा को विनययुक्त देखकर बड़े प्रसन्न हुए और जनता को आनंदित करते हुए बोले।
बाल्मीकि मुनि बोले, ‘हे नृपश्रेष्ठ! ठीक है, ठीक है, तुममें उक्त प्रकार की सब बातों का होना सम्भव है। हे राजन्! तुम चिंता से आतुर क्यों हो? सो सब मन की बात कहो। ऐसा मालूम पड़ता है कि तुम्हारी कुछ कहने की इच्छा है, इसलिये हे महामते! उसे कहो।
राजा दृढ़धन्वा बोला, ‘आपके चरणकमल की कृपा से हमेशा सुख है। परन्तु हे विद्वन्! हमारे हृदय में एक बड़ा सन्देह है। वन में होने वाले शुक पक्षी के मुख से निकले हुए बाण के समान उस वचन को दूर करें। किसी समय मैं शिकार खेलने के लिये गहन वन में निकल गया। वहाँ भ्रमण करता हुआ एक तालाब देखा, उसका जल पीया, बाद में थकावट दूर करने के लिये एक बड़े वटवृक्ष के नीचे बैठ गया। अत्यन्त घनी तथा सुन्दर छायावाले और मन एवं नेत्र को आनन्द देनेवाले उस वृक्ष पर बैठे हुए सुन्दर शुक पक्षी को देखा। जब उस शुक पक्षी पर हमारी दृष्टि गई तब उसने हमारे सम्मुख होकर एक श्लोक पढ़ा, कि इस पृथिवी पर विद्यमान अतुल सुख को देखकर तूँ तत्त्व (आत्मा) का चिंतन नहीं करता है तो इस संसार के पार कैसे जायेगा? मैं इस प्रकार शुक पक्षी के वचन को सुनकर विस्मित हो गया, हे ब्रह्मन्! मैं नहीं जानता कि उस शुक पक्षी ने क्या कहा?
इस हमारे हृदय के सन्देह को आप दूर करने के योग्य हैं। हमारा राज्य-सुख तथा सुन्दर चार पुत्र, सुन्दर पतिव्रता स्त्री, हाथी, घोड़ा, रथ सेना, हे ब्रह्मन्! ये सब अतुल समृद्धि इस समय हमें किस पुण्य से प्राप्त है? यह सब विचार कर संक्षेप में कहने के आप योग्य हैं।
राजा दृढ़धन्वा के वचन को बाल्मीकि मुनि सुनकर, प्राणायाम कर, एक मुहूर्त तक ध्यान मैं मग्न हो, हाथ में रखे हुये आँवला के फल के समान विश्वा संसार के भूत, भविष्यत् और जो वर्तमान विषयं हैं, उनको हृदय में समाधि के बल से जानकर और निश्चिय कर राजा से बोले।
बाल्मीकि मुनि बोले, ‘हे राजाओं में श्रेष्ठ! अपने पूर्वजन्म का चरित्र तुम सुनो, हे राजेन्द्र! पूर्वजन्म में आप द्रविड़ देश में ताम्रपर्णी नदी के किनारे वास करने वाले सुदेव नामक ब्राह्मण थे। धार्मिक, सत्यवादी, जो मिल जाय। उतने ही में सन्तोष करने वाले, वेधाध्ययन में सम्पन्न, विष्णु भक्ति में परायण रहा करते थे। आपने अग्निहोत्र आदि यज्ञों के द्वारा भगवान् हरि को प्रसन्न किया। इस प्रकार रहते हुये तुम्हारी गुणवती स्त्री थी। वह गौतम ऋषि की सुन्दर कन्या गौतमी नाम से प्रसिद्ध शंकर की सेवा में तत्पर पार्वती के समान तुम्हारी प्रेम से सेवा करती थी।
गृहस्थाश्रम धर्म में धर्मपूर्वक वास करते बहुत समय बीत गया! परन्तु तुम्हें कोई सन्तान नहीं हुई। एक दिन अपने स्त्री से सेवित आसन पर बैठा हुआ दुःखित ब्राह्मण गद्गद स्वर से बोला, ‘अयि सुन्दरि! संसार में पुत्र से बढ़ कर दूसरा सुख नहीं है और तप दान से उत्पन्न पुण्य दूसरे लोक में सुख देने वाला होता है। शुद्ध वंश में होने वाली सन्तान इस लोक में तथा परलोक में कल्याण करने वाली होती है, उस श्रेष्ठ पुत्र के न मिलने से मेरा जीवन निष्फल है। न तो मैंने पुत्र को प्यार किया और न वेद पढ़ने के लिए सोने से जगाया, न तो उसका विवाह किया, इसलिए मेरा जन्म व्यर्थ में चला गया।
अभी मेरी मृत्यु हो, मेरे को आयुष्य प्रिय नहीं है। इस प्रकार अपने प्रिय पति का वचन सुनकर स्त्री गौतमी खिन्न मन हुई। बाद धैर्य धारण करती हुई, प्रिय वचन बोलने में चतुर, प्रिय पति के प्रेम में मग्न वह स्त्री अपने पति को समझाने के लिये सुन्दर वचन बोली।
गौतमी बोली, ‘हे प्राणेश्वर! अब इस तरह तुच्छ वचनों को न कहिये। आपके समान भगवद्भक्त विद्वान् लोग मोह को प्राप्त नहीं होते हैं। हे विभो! आप सत्यधर्म में तत्पर रहनेवाले हो, आपने स्वर्ग को जीत लिया है। हे सुव्रत! अर्थात् हे सुन्दर व्रत करने वाले! आप जैसे ज्ञानी को पुत्रों से सुख की प्राप्ति कैसी? अर्थात् ज्ञानी पुरुष पुत्रों से होने वाले सुख की इच्छा नहीं करते हैं।
हे ब्रह्मन्! पहले चित्रकेतु नामक राजा पुत्र-शोक से सन्तप्त हुआ तब नारद और अंगिरा ऋषि के आने पर पुत्र-शोक से मुक्त हो संसार से उद्धार को प्राप्त हुआ। इसी प्रकार राजा अंग वेन नामक दुष्ट पुत्र के कारण रात्रि के समय वन को चला गया। इसी तरह हे स्वामिन्! आपको भी सन्ताति दुःख देनेवाली होगी। फिर भी हे तपोधन! यदि आपको सत्-पुत्र की लालसा है तो प्रसन्नता से जगत् के नाथ, समस्त अर्थों के दाता, हरि भगवान् की आराधना करें। हे ब्रह्मन्! पहले सांख्याचार्य कर्दम ऋषि ने जिनकी आराधना कर पुत्र को प्राप्त किया जो कि पुत्र योगियों में श्रेष्ठ कपिल देव नाम से प्रसिद्ध हुआ।
ब्राह्मण श्रेष्ठ इस प्रकार अपनी धर्मपत्नी के वचन सुनकर तथा निश्चय कर उस अपनी गौतमी स्त्री के साथ ताम्रपर्णी नदी के तट पर गया। वहाँ जाकर उस पवित्र तीर्थ में स्नान कर अत्यन्त श्रेष्ठ तप करता भया। पाँच-पाँच दिन के बाद सूखे पत्ते तथा जल का आहार करता था। इस प्रकार तप करते उस तपोनिधि सुदेव ब्राह्मण को चार हजार वर्ष व्यतीत हो गये, हे ब्रह्मन्! उसके इस तपस्या से तीनों लोक काँप उठे। भक्तवत्सल भगवान् उस सुदेव ब्राह्मण के अत्यन्त उग्र तपस्या को देखकर जल्दी से गरुड़ पर सवार होकर प्रगट हुए।
श्रीनारायण बोले, ‘नवीन मेघ के समान, जगत् की रक्षा करने में समर्थ चार भुजा वाले, प्रसन्नमुख मुरारि को देखकर सुदेव शर्मा ब्राह्मण हर्ष के साथ मुकुन्द भगवान् को साष्टांग प्रणाम करता हुआ बोला।
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये चतुर्दशोऽध्याय ॥१४॥