पुराणों में अनेक कहानियाँ हैं, जो हमें भक्ति, संकल्प, और आत्म-विश्वास का महत्त्व सिखाती हैं। ऐसी ही एक प्रेरणादायक कथा है बालक ध्रुव की, जिसने अपने दृढ़ संकल्प और ईश्वर-भक्ति से अमरता प्राप्त की। यह कथा न केवल हमारे धार्मिक इतिहास का हिस्सा है, बल्कि यह हमें यह भी सिखाती है कि कठिन परिस्थितियों में भी यदि संकल्प और भक्ति प्रबल हो, तो मनुष्य अजेय बन सकता है।
ध्रुव का परिचय और परिवार
स्वयंभुव मनु और शतरुपा के पुत्र राजा उत्तानपाद के दो पत्नियाँ थीं – सुनीति और सुरुचि। सुनीति की कोख से ध्रुव का जन्म हुआ और सुरुचि की कोख से उत्तम का। हालांकि सुनीति बड़ी रानी थीं, फिर भी राजा का प्रेम सुरुचि के प्रति अधिक था। इस कारण ध्रुव को पिता का स्नेह नहीं मिल पाया, जिससे उसके बाल-मन में उदासी और आक्रोश उत्पन्न हुआ।
ध्रुव का अपमान और आत्मसम्मान का जागरण
एक दिन ध्रुव अपने पिता की गोद में बैठकर खेल रहे थे। तभी उनकी सौतेली माँ सुरुचि वहाँ आईं और बालक ध्रुव को देख उनके मन में ईर्ष्या का भाव उत्पन्न हुआ। सुरुचि ने ध्रुव को राजा की गोद से खींचते हुए अपमानजनक शब्दों में कहा, “राजा की गोद में वही बालक बैठ सकता है जो मेरी कोख से उत्पन्न हुआ हो।” इन कठोर शब्दों ने पाँच वर्षीय ध्रुव के मन में गहरी चोट पहुँचाई और आत्म-सम्मान का जागरण किया।
भगवान की शरण और तप का प्रारम्भ
अपमानित होकर ध्रुव अपनी माँ सुनीति के पास गए और पूरी बात बताई। सुनीति ने पुत्र को समझाया, “बेटा, अपने पिता से प्रेम की आशा मत रखो, भगवान को ही अपना सहारा बनाओ।” माँ के इस प्रेरणादायक वचन ने ध्रुव के हृदय में भक्ति का बीज बो दिया। इसके बाद ध्रुव ने भगवान की भक्ति में जीवन अर्पण करने का निश्चय किया और तपस्या करने के लिए घर छोड़कर जंगल की ओर प्रस्थान कर गए।
ध्रुव की तपस्या और नारद मुनि का मार्गदर्शन
रास्ते में ध्रुव की भेंट नारद मुनि से हुई। नारद जी ने उसे समझाने का प्रयास किया कि इतनी छोटी उम्र में कठिन तपस्या करना आसान नहीं होगा। परन्तु, ध्रुव के दृढ़ निश्चय को देखकर नारद जी ने उसे मंत्र की दीक्षा दी और मार्गदर्शन दिया। बालक ध्रुव यमुना के तट पर पहुँचकर भगवान नारायण की आराधना में तप करने लगे। ध्रुव के दृढ़ संकल्प के आगे उनकी सभी समस्याएं तुच्छ सिद्ध हुईं और उनके तप का प्रभाव तीनों लोकों में फैलने लगा।
भगवान नारायण का प्रसन्न होकर दर्शन देना
ध्रुव की तपस्या से भगवान नारायण प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे दर्शन देने का निश्चय किया। भगवान नारायण ने प्रकट होकर कहा, “हे राजकुमार! तुम्हारी भक्ति ने मुझे प्रसन्न कर दिया है। तुम्हारी समस्त इच्छाएं पूर्ण होंगी। मैं तुम्हें ऐसा स्थान प्रदान कर रहा हूँ, जो अमर है और जिसके चारों ओर सभी ग्रह-नक्षत्र परिक्रमा करते हैं।” इस वरदान के साथ भगवान नारायण ने ध्रुव को आशीर्वाद दिया कि वह संसार में ध्रुव तारे के रूप में अमर रहेंगे।
ध्रुव तारा बनकर अमरत्व की प्राप्ति
भगवान के वरदान से ध्रुव का तप सफल हुआ। समय आने पर वह ध्रुव तारे के रूप में आकाश में प्रतिष्ठित हुए, जो कि एक अटल और अमर स्थान है। ध्रुव लोक का यह स्थान उस संकल्प की याद दिलाता है, जो कठिन परिस्थितियों में भी निष्ठा और भक्ति से कभी विचलित नहीं होता।
कथा का संदेश
ध्रुव की यह कहानी हमें सिखाती है कि अगर हमारी आस्था मजबूत हो, तो जीवन की किसी भी कठिनाई को पार किया जा सकता है। अपने आत्म-सम्मान और संकल्प की शक्ति से हम भी अपने जीवन में सफलता की ऊँचाइयों को छू सकते हैं।
ध्रुव का यह अमर संकल्प हमें प्रेरित करता है कि हमारे पास कितनी भी कठिनाइयाँ हों, एक निश्चल हृदय और अडिग विश्वास से हम अपना लक्ष्य पा सकते हैं।