कार्तिक मास माहात्म्य कथा: अध्याय 33 – Kartik Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 33

कार्तिक मास माहात्म्य कथा: अध्याय 33 – Kartik Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 33

व्रत कथा

दया दृष्टि कर हृदय में, भव भक्ति उपजाओ।
तैंतीसवाँ अध्याय लिखूँ, कृपादृष्टि बरसाओ।।

सूतजी ने कहा- इस प्रकार अपनी अत्यन्त प्रिय सत्यभामा को यह कथा सुनाकर भगवान श्रीकृष्ण सन्ध्योपासना करने के लिए माता के घर में गये। यह कार्तिक मास का व्रत भगवान विष्णु को अतिप्रिय है तथा भक्ति प्रदान करने वाला है। 1) रात्रि जागरण, 2) प्रात:काल का स्नान, 3) तुलसी वट सिंचन, 4) उद्यापन और 5) दीपदान- यह पाँच कर्म भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाले हैं इसलिए इनका पालन अवश्य करना चाहिए।

ऋषि बोले- भगवान विष्णु को प्रिय, अधिक फल की प्राप्ति कराने वाले, शरीर के प्रत्येक अंग को प्रसन्न करने वाले कार्तिक माहत्म्य आपने हमें बताया। यह मोक्ष की कामना करने वालो अथवा भोग की इच्छा रखने वाले मनुष्यों को यह व्रत अवश्य ही करना चाहिए। इसके अतिरिक्त हम आपसे एक बात पूछना चाहते हैं कि यदि कार्तिक मास का व्रत करने वाला मनुष्य किसी संकट में फंस जाये या वह किसी वन में हो या व्रती किसी रोग से ग्रस्त हो जाये तो उस मनुष्य को कार्तिक व्रत को किस प्रकार करना चाहिए? क्योंकि कार्तिक व्रत भगवान विष्णु को अत्यन्त प्रिय है और इसे करने से मुक्ति एवं भक्ति प्राप्त होती है इसलिए इसे छोड़ना नहीं चाहिए।

श्रीसूतजी ने इसका उत्तर देते हुए कहा- यदि कार्तिक का व्रत करने वाला मनुष्य किसी संकट में फंस जाये तो वह हिम्मत करके भगवान शंकर या भगवान विष्णु के मन्दिर, जो भी पास हो उसमें जाकर रात्रि जागरण करे। यदि व्रती घने वन में फंस जाये तो फिर पीपल के वृक्ष के नीचे या तुलसी के वन में जाकर जागरण करे। भगवान विष्णु की प्रतिमा के सामने बैठकर विष्णुजी का कीर्तन करे। ऎसा करने से सहस्त्रों गायों के दान के समान फल की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य विष्णुजी के कीर्तन में बाजा बजाता है उसे वाजपेय यज्ञ के समान फल की प्राप्ति होती है और हरि कीर्तन में नृत्य करने वाले मनुष्यों को सभी तीर्थों में स्नान करने का फल प्राप्त होता है। किसी संकट के समय या रोगी हो जाने और जल न मिल पाने की स्थिति में केवल भगवान विष्णु के नाममात्र से मार्जन ही कर लें।

यदि उद्यापन न कर सके तो व्रत की पूर्त्ति के लिए केवल ब्राह्मणों के प्रसन्न होने के कारण विष्णुजी प्रसन्न रहते हैं। यदि मनुष्य दीपदान करने में असमर्थ हो तो दूसरे की दीप की वायु आदि से भली-भांति रक्षा करे। यदि तुलसी का पौधा समीप न हो तो वैष्णव ब्राह्मण की ही पूजा कर ले क्योंकि भगवान विष्णु सदैव अपने भक्तों के समीप रहते हैं। इन सबके न होने पर कार्तिक का व्रत करने वाला मनुष्य ब्राह्मण, गौ, पीपल और वटव्रक्ष की श्रद्धापूर्वक सेवा करे।

शौनक आदि ऋषि बोले- आपने गौ तथा ब्राह्मणों के समान पीपल और वट वृक्षों को बताया है और सभी वृक्षों में पीपल तथा वट वृक्ष को ही श्रेष्ठ कहा है, इसका कारण बताइए।

सूतजी बोले- पीपल भगवान विष्णु का और वट भगवान शंकर का स्वरूप है। पलाश ब्रह्माजी के अंश से उत्पन्न हुआ है। जो कार्तिक मास में उसके पत्तल में भोजन करता है वह भगवान विष्णु के लोक में जाता है। जो इन वृक्षों की पूजा, सेवा एवं दर्शन करते हैं उनके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।

ऋषियों ने पूछा- हे प्रभु! हम लोगों के मन में एक शंका है कि ब्रह्मा, विष्णु और शंकर वृक्ष स्वरुप क्यों हुए? कृपया आप हमारी इस शंका का निवारण कीजिए।

सूतजी बोले- प्राचीनकाल में भगवान शिव तथा माता पार्वती विहार कर रहे थे। उस समय उनके विहार में विघ्न उपस्थित करने के उद्देश्य से अग्निदेव ब्राह्मण का रुप धारण करके वहाँ पहुँचे। विहार के आनन्द के वशीभूत हो जाने के कारण कुपित होकर माता पार्वती ने सभी देवताओं को शाप दे दिया।

माता पार्वती ने कहा- हे देवताओं! विषयसुख से कीट-पतंगे तक अनभिज्ञ नहीं है। आप लोगों ने देवता होकर भी उसमें विघ्न उपस्थित किया है इसलिए आप सभी वृक्ष बन जाओ।

सूतजी बोले- इस प्रकार कुपित पार्वती जी के शाप के कारण समस्त देवता वृक्ष बन गये। यही कारण है कि भगवान विष्णु पीपल और शिवजी वट वृक्ष हो गये। इसलिए भगवान विष्णु का शनिदेव के साथ योग होने के कारण केवल शनिवार को ही पीपल को छूना चाहिए अन्य किसी भी दिन नहीं छूना चाहिए।